म्याँमार: सैन्य नेतृत्व की ‘डिजिटल तानाशाही’ की निन्दा
स्वतंत्र मानवाधिकार विशेषज्ञों ने मंगलवार को जारी अपने एक वक्तव्य में, इण्टरनैट सुलभता पर पाबन्दी लगाए जाने और ऑनलाइन सैन्सरशिप व निगरानी की जाने की कोशिशों पर क्षोभ व्यक्त किया है.
उन्होंने कहा कि एक ऐसे समय में जब म्याँमार की जनता के लिये, अभिव्यक्ति की आज़ादी, सूचना व निजता की सुलभता के अधिकार को व्यवस्थागत ढंग से नकारा जा रहा हो, अन्तरराष्ट्रीय समुदाय को चुप नहीं बैठे रहना होगा.
“सूचना की ऑनलाइन सुलभता, म्याँमार में अनेक लोगों के लिये जीवन व मृत्यु का विषय है. इनमें वे लोग भी हैं जोकि सेना के ताबड़तोड़ हमलों से सुरक्षा चाहते हैं और लाखों अन्य लोग जोकि विनाशकारी आर्थिक व मानवीय संकट से निकलने का प्रयास कर रहे हैं.”
यूएन विशेषज्ञों ने ज़ोर देकर कहा कि सैन्य नेतृत्व, इण्टरनैट ठप करने के अलावा, उसकी निगरानी भी कर रहा है, ताकि व्यापक जनविरोध को कमज़ोर बनाया जा सके.
विशेष रैपोर्टेयर्स ने यूएन सदस्य देशों से सैन्य नेतृत्व द्वारा ऑनलाइन व ऑफ़लाइन माध्यमों पर बुनियादी आज़ादियों पर नियंत्रण करने की कोशिशों की निन्दा करने का आग्रह किया है.
म्याँमार में 1 फ़रवरी 2021 को सैन्य तख़्तापलट के बाद से ही, सैन्य नेतृत्व ने इण्टरनैट पर राष्ट्रव्यापी पाबन्दियाँ लगाई हैं और सोशल मीडिया व अन्य सन्देश प्लैटफ़ॉर्म तक पहुँच के रास्ते में भी अवरोध खड़े किये गए हैं.
इण्टरनैट पर लगाम कसने की कोशिश
स्वतंत्र विशेषज्ञों के अनुसार, सैन्य नेतृत्व ने अनेक वैबसाइट और सोशल मीडिया प्लैटफ़ॉर्म पर रोक लगाई है, जिनमें फ़ेसबुक भी है जिसे म्याँमार में जानकारी के आदान-प्रदान के एक मुख्य चैनल के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है.
इसके अलावा, इण्टरनैट सेवा प्रदात्ताओं से डेटा क़ीमतें बढ़ाने के लिये कहा गया है और डेटा व सिम कार्ड पर भी नए कर लगाए गए हैं, जिससे अनेक लोगों के लिये इण्टरनैट पहुँच से बाहर हो रहा है.
मानवाधिकार विशेषज्ञों ने अन्तरराष्ट्रीय समुदाय से सेना और सेना से जुड़ी कम्पनियों पर लक्षित प्रतिबन्ध लगाए जाने पर बल दिया है, जिनमें निगरानी टैक्नॉलॉजी की बिक्री या आपूर्ति पर पाबन्दी भी है.
साथ ही यूएन के सदस्य देशों और अन्तरराष्ट्रीय दानदाताओं को म्याँमार में निगरानी तंत्रों और सैन्सरशिप का मुक़ाबला करने के लिये नागरिक समाज को समर्थन देना होगा.
अनेक इलाक़े प्रभावित
बताया गया है कि हाल के दिनों में उन इलाक़ों में इण्टरनैट उपलब्धता को रोका गया है, जहाँ सैन्य नेतृत्व को विरोधी गुटों से सख़्त प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा है.
अगस्त 2021 के बाद से, सात प्रान्तों की 31 टाउनशिप व क्षेत्रों में इण्टरनैट बाधित हुआ है और 23 अन्य टाउनशिप में इण्टरनैट सेवा की गति बेहद धीमी हुई है.
विशेषज्ञों ने सचेत किया कि, “सैन्य नेतृत्व द्वारा इण्टरनैट पाबन्दियों का इस्तेमाल अभी जारी क्रूरताओं को छिपाने के लिये एक लबादे के तौर पर किया जा रहा है.”
उनका कहना है कि इण्टरनैट सुलभता में अवरोध खड़े किये जाने से पत्रकारों, मानवाधिकारों की निगरानी कर रहे कार्यकर्ताओं और मानवीय राहत संगठनों के कामकाज में बाधाएँ उत्पन्न होती हैं.
इससे मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों में तथ्य जुटाना और जोखिम झेल रही आबादी तक सहायता पहुँचाने में मुश्किलें होती हैं.
“देश के बड़े हिस्सों में [इण्टरनैट] से जुड़ाव के अभाव से हमारे शासनादेश (mandates) के लिये चुनौती उत्पन्न होती है, जोकि मानवाधिकार दुर्व्यवहारों पर समकालीन तथ्यों को एकत्र किये जाने पर निर्भर है.”
बढ़ती चुनौतियाँ
म्याँमार में चार दूरसंचार कम्पनियों में से तीन का सीधे तौर पर सेना से सम्बन्ध है और उन पर निगरानी टैक्नॉलॉजी का इस्तेमाल करने व यूज़र डेटा को पुलिस व सैन्य अधिकारियों को देने का दबाव है.
सैन्य तख़्तापलट के दो सप्ताह बाद, ‘इलैक्ट्रॉनिक आदान-प्रदान क़ानून’ में संशोधन के ज़रिये निजी डेटा पर सरकारी व क़ानून एजेंसियों की दख़ल बढ़ी और ऑनलाइन सन्देश सम्बन्धी अपराधों की व्यापक परिभाषा का इस्तेमाल किया गया है.
विशेष रैपोर्टेयर्स ने कहा है कि साइबर सुरक्षा से जुड़े एक प्रस्तावित क़ानून के मसौदे से पता चलता है कि सरकारी एजेंसियों के अधिकार बढ़ेंगे और बिना किसी न्यायिक समीक्षा के इण्टरनैट सुलभता या ऑनलाइन सामग्री पर रोक लगाई जा सकती है.
इसके अलावा वर्चुअल प्राइवेट नैटवर्क (VPN) के इस्तेमाल पर भी पाबन्दी होगी, और इन यूज़र्स को तीन साल तक की जेल की सज़ा दिये जाने का प्रावधान है.
अभी यह क़ानून लागू नहीं किया गया है, मगर बताया गया है कि पुलिस और सैन्य अधिकारियों ने संदिग्ध विरोधी पक्ष के कार्यकर्ताओं व अन्य बन्दियों के फ़ोन में VPN ऐप्स की तलाशी शुरू कर दी है.
मानवाधिकार विशेषज्ञ
इस वक्तव्य को जारी करने वाले मानवाधिकार विशेषज्ञों की सूची यहाँ देखी जा सकती है.
सभी स्वतंत्र मानवाधिकार विशेषज्ञ, जिनीवा स्थित यूएन मानवाधिकार परिषद द्वारा नियुक्त किये जाते हैं, और वो अपनी निजी हैसियत में, स्वैच्छिक आधार पर काम करते हैं.
ये मानवाधिकार विशेषज्ञ संयुक्त राष्ट्र के कर्मचारी नहीं होते हैं और ना ही उन्हें उनके काम के लिये, संयुक्त राष्ट्र से कोई वेतन मिलता है.